Sunday 17 May 2020

मन से मन की बात

सोचता हूँ कि समझना है जरूरी ,मन से मन की बात।
चुप है रिश्ते कि विपरीत है सोच ,पर रहते फिर भी साथ।
एक डगर है, मन उदास मगर है संग मैं,मेरी,मेरे ओर तात।
है अनुज पर अहम बड़ा है,भूल गया दाऊ करना कुछ मीठी बात।
कहाँ गई वो सपनो सी दुनिया,खेल था जिसमें उठापटक घूसे ओर लात।
शब्द एक जो अब संघारक हुआ ,जो था कभी कोई सौगात।
बात बड़ी हुई भाव शून्य, गली सड़क भी हुए अव्वाक।
शायद यह ही होता आया है,सर्दी गर्मी और बरसात।


कहती थी वो दादी

कहती थी वो दादी...

मात-पिता संग सम्पूर्ण परिवार,था रहता मनाता खुशिया त्योहार।
काल चक्र का चला चक्र,भूल गरिमा मानव ने खायी हार- पे- हार। 
वो समय था कहती थी वो ..दादी,चूल्हा था घर मे एक न कोई वादी।
वो समय है अब सहती है दादी,दूल्हा बना जब से हुई पोते की शादी।
सोचती देखती होगी वो.. दादी,गुमसुम आंखे ओर रिस्तो की बर्बादी।
सोचती बहुत है अब सास, हुई है उम्र तो उखड़ती है अब उसकी सांस।
ससुर की फिक्र करती है उसकी स्वांस,रहता वो अकेला अक्सर न कोई आस पास।
देख रही है सब वो..दादी, मैं मेरी ओर मेरे हुए सीमित बाकी सब बकवास।
आशाएं छूट रही हैं उम्मीदें टूट रही है,धूमिल हुआ ओस सा भाव और अहसास।

रचनाकार---दीपक अग्रवाल